सर्दी के इस चिलचिलाते मौसम में भी आजकल देश में बदलाव की लू चल रही है। जब से मोदी जी ने कहा है, सोच बदलो, देश बदलेगा। तब से शायद ही कोई इस बदलाव की चपेट में आने से बचा हो। क्या जनता, क्या नेता, क्या डाक्टर, क्या मरीज, क्या अमीर, क्या गरीब, सब बदलाव से ग्रसित हैं। बदलाव भी एक तरह का नहीं, तरह तरह का। वैसे तो ज्ञानी जन कह गए हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है। लेकिन आजकल तो लोगों की प्रकृति (स्वभाव) तक बदल रहा है। आइये देखते हैं कि बदलाव का संक्रमण कहाँ कहाँ तक फैल चुका है।
सबसे पहले तो मोदी साहब ने खुद को बदला। चुनाव के समय कांग्रेसियों के भ्रष्टाचार का हल्ला मचाकर, भ्रष्टाचार और महँगाई से जनता को डराकर वोट लिया। और चुनाव जीतने पर इन मुद्दों पर ही बदल गए। यहाँ तक कि अब सरकार पर कोई भी भ्रष्टाचार का आरोप लगे, सरकार उसकी जाँच तक करने को तैयार नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट पाँच साल चिंचियाती रह गई लेकिन न लोकपाल नियुक्त हुआ और ना ही कोई भ्रष्ट कांग्रेसी जेल गया। ये अलग बात है कि आईटी सेल और टोल आर्मी पूरे पाँच सालों से जवाहर लाल नेहरू पर फेक-केस पर फेक-केस दर्ज कर रही है। हाँ, कांग्रेसियों को इतनी सजा जरूर दी गई है कि उनकी योजनाओं के नाम बदलकर, नई पैकेजिंग के साथ जनता को चकाचौंध कर दिया गया है।
और महँगाई डायन तो एसी बदली कि आजकल कैटरीना कैफ जैसी अफ़सरा हो गई है। रोज सुबह उठते ही, कैलेण्डर की तारीख बदले न बदले, पेट्रोल –डीजल के दाम बदल कर विकास चच्चा के कंधे पर बैठ जाते है। रसोई गैस के दाम बदलकर अब विकास सहायता कोष हो चुका है। लोग भी अब इतने बदल गए हैं कि अगर कुछ दिन भी गैस-तेल के दाम न बढ़कर, जनता का तेल ना निकालें, तो लोगों को शक होने लगता है कि कहीं विकास चच्चा को कुछ हो तो नहीं गया।
सोच बदलो देश बदलो के नारे के साथ सबसे पहले तो सरकार ने पाँच सौ और हजार के नोट बदले। फिर नोट बदलने से होने वाले फायदे, आज तक बदल रहे हैं। पहले नोट बदलने का उद्देश्य कालाधन मिलना था, आतंकवाद ख़त्म होना था, भ्रष्टाचार ख़त्म होना था। बाद में उद्देश्य बदलकर, कैशलेस इकोनोमी हो गया, फिर बदलकर लेसकैश इकोनोमी हो गया। फिर बदलकर टैक्स कलेक्शन बढ़ाना हो गया। फिर बदलकर, ज्यादा से ज्यादा लोगों से टैक्स रिटर्न भरवाना हो गया। इस मुद्दे पर सरकार इतना बदली कि अब समझ में आया कि सोच बदलो क्या होता है।
मौन-मोहन राज में सरकार के हर काम में घोटाला-घोटाला चिल्लाने वाली पार्टी, सरकार के हर काम कि जाँच जेपीसी से, सीबीआई से कराने की माँग पर महीनों संसद ना चलने देने वाली पार्टी जब खुद सरकार में आयी तो इतना बदली कि अब भ्रष्टाचार का नाम ही बदलकर देशभक्ती कर दिया है। अब सरकार के खिलाफ जाँच की माँग करने वाला देशद्रोही, गद्दार होता है। बोफ़ोर्स घोटाले की जेपीसी से जाँच, सीबीआई से जाँच कराने वाले, राफेल की जाँच कराने पर मन बदल लेते हैं। भाजपा सरकार में सोच बदलने की इतनी ललक है कि विपक्ष में रहते हुये, किसी भी मुद्दे पर जो सोच थी, सरकार में आते ही बदल लिया।
इतनी सोच बदलने के बाद भी जब जाहिल देशवासी नहीं बदले, देश भी नहीं बदला, तो सरकार ने देश बदलने के लिए बुनियाद से शुरुआत की। देश की बुनियाद यानि छोटे-छोटे कस्बे। कस्बे से शहर बना है, शहर से देश। तो सरकार पहले कस्बों का फिर शहरों के नाम बदल रही है। जैसे गुड़गांव अब गुरुग्राम में बदल गया तो मुगलसराय अब पंडित दीनदयाल उपाद्ध्याय में बदल गया। फिर शहरों के नाम इलाहाबाद, प्रयाग में और फैजाबाद, अयोद्ध्या में बदल गए। अगर अब भी देश और देशवासी नहीं बदले तो फिर देश का नाम बदलने के सिवा, कोई चारा नहीं रह जाएगा हमारी सरकार के पास।
सोच बदलने से देश बदलेगा यह सार्वकालिक सत्य बात है। जैसे कर्ज लेकर चुकाना तो जाहिलों- गंवारों का काम है। जिस जिस ने ये सोच बदला और कर्ज लेकर नहीं चुकाया, आज उन सबने देश बदल दिया है। अब वो भारत की बजाय ब्रिटेन, बेल्जियम या एन्टीगुआ में एश फरमा रहे हैं।
कुछ खास मौसमों में सोच बदलने की प्रक्रिया, काफी तेज हो जाती है। जैसे चुनावों के मौसमों में सोच बदलने का सूचकांक शिखर पर होता है। चुनाव घोषित होते ही सबसे पहले तो नेता लोग पार्टियां बदलना शुरू कर देते हैं। जो पार्टी जीतने वाली होती हैं, दूसरी पार्टी के नेता पार्टी बदलकर, उस पार्टी में जाने लगते हैं। कल तक जो सांप्रदायिक पार्टी के साथ थे, अब बदलकर सेकुलर पार्टी में जाने लगते हैं। सेकुलर पार्टी वाले राष्ट्रभक्त पार्टी में जाने लगते हैं। नेता जिस पार्टी से निकलते हैं और जिस पार्टी में जाते हैं, दोनों के बारे में तुरन्त अपनी सोच बदल लेते हैं। जॉइन करने के पहले जो पार्टी सांप्रदायिक रहती है, वो सेकुलर हो जाती है। छोड़ने के पहले जो पार्टी सेकुलर थी वो सांप्रदायिक हो जाती है।
कुछ नेता अपनी टोपियाँ बदल लेते हैं, कुछ निष्ठाएँ। पहले ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी पहनने वाले बदलकर ‘मैं आम आदमी हूँ’ की टोपी पहन लेते हैं। यदि कुछ और बदलाव का संक्रमण बढ़ा तो ‘मोदी’ की टोपी पहन लेते हैं। इसी तरह सोच बदलकर ‘गांधी’ टोपी वाले भी ‘मोदी’ टोपी में बदल जाते हैं हैं। इस तरह से नेता, टोपी बदलकर, चुनाव में जनता को और जीतने पर देश को टोपी पहना देते हैं।
कुछ लोगों ने तो अपना दिल ही बदल लिया। कल तक राजनीति और नेताओं को गाली दे रहे थे। अब नेताओं को ही सबसे बड़ा प्रेरक बता कर देश का भाग्य बदलने का नारा देकर अपना भाग्य बदल रहे हैं। कल तक पार्टियों में पारदर्शिता लाने के लिए आरटीआई के अंदर आने की बात कहने वाले अब अपना दिल बदलकर अपनी बात से बदलने लगे हैं।
कुछ नेता तो चुनाव आते ही अपना चुनाव क्षेत्र बदलने लगते हैं। कभी जनता चुनाव में नेता को बदलती थी, अब नेता चुनाव में जनता को ही बदल देते हैं। कुछ नेता तो चुनाव में मुद्दे बदलने लगते हैं। कभी विकास, कालाधन मुद्दा था तो अब राम मंदिर और तीन तलाक हो गया है। कभी गरीबी हटाओ मुद्दा था तो अब बदलकर सेकुलरिज़्म हो गया है। कभी लोकपाल मुद्दा था तो अब बदलकर बिजली-पानी हो गया है।
सोच बदलो, देश बदलेगा की जबर्दस्त आँधी चल रही है। कोई देश बदल रहा है, कोई मुद्दा बदल रहा है। कोई चेहरा बदल रहा है। कोई ‘दल’ बदल रहा है तो कोई ‘दिल’ बदल रहा है। कोई निष्ठा बदल रहा है, तो कोई चुनाव क्षेत्र। देखना ये है कि जनता कब बदलती है?