हमारा देश त्योहारों का देश है। मौसम के अनुसार यहाँ तरह तरह के त्योहार मनाये जाते हैं। कभी कभी ये लगता है कि जनता त्योहार मनाने के लिए ही पैदा हुई है। आजकल देश में चुनाव का त्योहार चल रहा है। जैसे हर त्योहार मनाने के कुछ कर्मकाण्ड होते हैं, वैसे ही चुनाव के त्योहार को मनाने के भी कुछ अलिखित परम्पराएं हैं। जो कि हमारे लोकतंत्र की पहचान हैं। इसमें से प्रमुख है देश बचाने का कर्मकाण्ड। चुनाव के बादल छाते ही, देश डूबने लगता है, गर्त में जाने लगता है, बर्बाद होने लगता है। और फिर सब तरफ देश बचाओ – देश बचाओ की ध्वनियों से पूरा चुनाव क्षेत्र गूँजने लगता है। अभी तक इस बात के पक्के सबूत नहीं मिल पाये हैं कि देश बर्बाद होने लगता है तब चुनाव आते हैं, या चुनाव आने से देश बर्बाद हो जाता है।
चुनाव घोषित होते ही सभी पार्टियाँ, देश बचाने के पुनीत कार्य में नंगे पैर दौड़ पड़ती हैं। कोई कहता है, हमको लाओ, देश बचाओ। कोई कहता है, उसको हटाओ, देश बचाओ। कोई कहता है, भ्रष्टाचार हटाओ, देश बचाओ। कोई कहता है, हमें जिताओ, देश बचाओ। सब लट्ठमलट्ठ एक दूसरे पर पिल पड़ते हैं, देश बचाने के लिए। जिसने जितना ज्यादा देश लूटा होता है, वो उतना ज़ोर से देश बचाने के लिए चिल्लाता है। चुनाव भर सब एक दूसरे से देश को बचाते रहते हैं। (अपने लिए, ताकि उसपे मक्खन लगा कर खुद चट कर सकें) चुनाव के बाद सब मिल-जुल कर देश को चबाते हैं और अगले चुनाव तक जुगाली करते हैं। लेकिन इतने चुनावों के बाद भी, जनता को पता ही नहीं चला कि देश बर्बाद कब हुआ और बचा कब?
वैसे हमारे देश वासियों ने बचाने में महारत हासिल कर ली है। हमेशा कुछ न कुछ बचाते ही रहते हैं। कभी बाघ बचाने घर से निकल पड़ते हैं। और उनके लिए गाय-भेड़- बकरियों की ब्यवस्था करने लगते हैं। तो कभी गाय बचाने निकाल पड़ते हैं, दलितों और मुस्लिमों को पीट-पीट कर। गाय की जान बचाकर, उसकी देह की माटी का निर्यात करके, पिंक रिवोल्यूशन लाकर, विश्व में नंबरवन बन जाते हैं। फिर कभी पेड़ बचाने में जुट जाते हैं और लकड़ी की कुर्सियां, मेज, सोफा, बेड आदि फर्नीचर ला-लाकर घर में सुरक्षित कर लेते है।
कभी पेपर बचाने लग जाते हैं और बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर और पर्चियाँ छापकर इसके लिए जागरूक करते हैं। पेपर बचाने के लिए सरकार ने पढ़ाई-लिखाई इतनी महंगी कर दी है कि कम से कम लोग किताबें खरीद सकें। वैसे भी पढ़ लिख कर क्या बनेगा। चाय बेंचे तो भविष्य ज्यादा उज्ज्वल होगा। पेपरलेस के नाम पर सभी बड़े-बड़े अधिकारियों को कंप्यूटर-लैपटाप, मोबाइल और टैबलेट बाँटे जाते हैं फिर उसे चलाने के लिए सहायक देना पड़ता है। और बड़े अधिकारी हर आनलाइन प्रोपोजल को प्रिन्ट करके फाइल में पढ़ते हैं।
गर्मी में नहाते समय पानी बचाने लगते हैं और इसी विचार में लोटे पर लोटा डालते रहते हैं। जहाँ सबेरे-सबेरे एक लोटे से काम चल जाता था, वहाँ सरकार ने शौचालय बनवाकर अब बाल्टी भर खर्चने का इंतजाम कर दिया। मौसम बदलते ही किसान बचाने में जुट जाते हैं और किसानों से उनकी भूमि छीनकर बड़े-बड़े बिल्डरों और उद्योगपतियों को दे देते हैं। जिससे किसान खेती करने जैसे कष्टकारी कार्य से बच सकें। और आराम से खुद की खुशी से खुदकुशी कर सकें। किसान बचाने के लिए सरकार किसान चैनल खोलकर अमिताभ बच्चन जैसे गरीब किसान को पाँच करोड़ दे देती है।
जब हमारी देशभक्ति बिलबिलाती है तो फिर हम जवान बचाने निकल पड़ते हैं। कभी फेसबुक पे लाइक, कमेन्ट, शेयर करवाते हैं। कभी झंडे को या भारतमाता के चित्र को अपने प्रोफाइल में लगा लेते हैं। जवानों को बचाने के लिए उनका खाना तक बाहर बेंच देते हैं, जिससे कि उन्हें सरकारी खराब खाने से बचाया जा सके। जब कोई जवान फेसबुक पर लाइव हो जाए तो उसे ड्यूटी से ही बचा देते हैं, और उसकी समस्या से सब बचने लगते हैं।
और कुछ बचा बचाने को? क्या कहा, बेटी बचाओ? छोड़ो भी यार। किसके लिए बेटी बचाओगे। देश में सब तरफ घूमते दरिंदों के लिए। या शराफत का चोला ओढ़े दहेज लोभियों के लिए? बेटी बचाने से किसे लाभ है, क्या करोगे बेटी बचाकर। कुछ और बचाते हैं। जिसे बेटी की जरूरत होगी, वो किसी ना किसी तरह बचा ही लेगा, हम क्यों बेकार में परेशान हों। अब देखो हमने नोटबंदी में भी जो चाहा वो बचा ही लिया। महँगाई में भी हमने पैसे, गैस, तेल, राशन आदि बचाकर दिखाया कि नहीं। यहाँ तक कि सरकार की आँखों में धूल झोंककर भी हम तरह तरह से टैक्स बचा ही लेते हैं। जो जरूरत होती है, बचा ही लेते हैं। वैसे ही बेटी की जिसे जरूरत होगी, बचा ही लेगा। खामखाह क्यों परेशान होना।
इतना सब बचाने के बाद भी देश बचाने की गुंजाइश हर चुनाव में रह ही जाती है। इसलिए इस चुनावी मौसम में देश बचाने के काम में सभी नेता गण लग गए हैं। नेता तो देश के साथ-साथ एक दूसरे को भी बचाते रहते हैं। लेकिन इन नेताओं से जनता को कौन बचाएगा?